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कविता

हुआ सबेरा

प्रदीप शुक्ल


किरनों ने कुंडी खटकाई
हुआ सबेरा
सूरज ने दुंदुभी बजाई
हुआ सबेरा

अलसाई सी
रात उठी
घूँघट झपकाए
तारों की बारात कहीं
अब नजर न आए
पूरब में लालिमा लजाई
हुआ सबेरा

हरी दूब पर
एक गिलहरी
दौड़ लगाए
सूरजमुखी खड़ी है लेकिन
मुँह लटकाए
ओस बूँद से कली नहाई
भोर हो रही
जूठे बासन
बोल रहे
चौके के भीतर
कल का बासी दूध
जा रही बिल्ली पीकर
मुँह पर उसके लगी मलाई
हुआ सबेरा

ले आया
अखबार
दाल के भाव घरों में
हम अपनी ही बात
ढूँढ़ते हैं खबरों में
आओ, दो कप चाय बनाई
हुआ सबेरा
 


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